................जीने की राह.......सत्संग ...................
शब्द जीवन के अर्थ बदल सकते हैं और बदल भी देते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण है सुनने वाला किस तरीके से सुन रहा है। क्योकि शब्द को सुनते ही मनुष्य उसे अपने भाव से जोड़ लेता है।
सत्संग का महत्व बी ठीक वैसे ही है, जैसे जिस पात्र में वस्तु डालो तो पात्र के आकार की हो जाती है, बर्तन में पानी डालो तो पानी भी बर्तन के आकार का हो जाता है।
इसीलिए कथाओं को सुनने से लोगों का जीवन नहीं बदलता, क्योंकि बोलने वाला सुपात्र हो तो भी सुनने वाला उसे अपने तरीके से ढालता है/ पर कुछ लोगोने अपनी मानसिकता ऐसे बना रखी है जैसे के एक उम्र ढलने के बाद ही सत्संग में जाना चहिए / जो बिलकुल गलत है / जीवन में कही से बी दो शब्द हमें ख़ुशी दे, और हमें आगे बढ़ने का रास्ता बताए ऐसे लोग का संग सत्संग से कम नहीं होता क्या?????????
इसीलिए कथाओं को सुनने से लोगों का जीवन नहीं बदलता, क्योंकि बोलने वाला सुपात्र हो तो भी सुनने वाला उसे अपने तरीके से ढालता है/ पर कुछ लोगोने अपनी मानसिकता ऐसे बना रखी है जैसे के एक उम्र ढलने के बाद ही सत्संग में जाना चहिए / जो बिलकुल गलत है / जीवन में कही से बी दो शब्द हमें ख़ुशी दे, और हमें आगे बढ़ने का रास्ता बताए ऐसे लोग का संग सत्संग से कम नहीं होता क्या?????????
एक सुन्दर कहानी है :
बहुत समय पहले की बात है। एक गुरु अपने शिष्यों के साथ घूमने जा रहे थे। वे अपने शिष्यों से बहुत स्नेह करते थे और उन्हें सदैव प्रकृति के समीप रहने की शिक्षा दिया करते थे। रास्ते में एक शिष्य पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ा। गुरु ने उसे सहारा देकर उठाया। शिष्य ने क्रोध से उस पत्थर को ठोकर मारी, जिससे उसके पैर में फिर से दर्द हुआ। गुरुजी ने उसे समझाया, 'तुमने ढेले को मारा, ढेले ने तो तुम्हें नहीं मारा। अगर तुम देखकर चलते तो तुम्हें चोट नहीं लगती। तुम्हें चाहिए था कि ढेला राह से हटाकर किनारे कर देते, ताकि किसी दूसरे को चोट न लगे।' इस पर शिष्य ने गुरुजी से क्षमा मांगी और उस पत्थर को राह से हटा दिया।
आगे बढ़ने पर एक उपवन दिखाई दिया। फूलों की महक से आकषिर्त होकर गुरुजी वहां जाकर बैठ गए। उन्होंने गुलाब के पौधे के नीचे से एक मिट्टी का ढेला उठाया और शिष्य को सूंघने के लिए कहा। 'गुरुजी इससे तो गुलाब के फूल की खुशबू आ रही है।' शिष्य ने चहकते हुए कहा। गुरुजी ने पूछा, 'मिट्टी में तो कोई गंध नहीं होती, फिर फूलों की सुगंध कैसी आई?' शिष्य ने कहा, 'गुरुजी, आपने ही तो एक बार बताया था कि मिट्टी की अपनी कोई गंध नहीं होती। वह जिस वस्तु के संपर्क में आती है, वैसी ही गंध अपना लेती है। जैसे वर्षा की बूंदों का साथ पाकर वह सोंधी गंध फैलाती है, वैसे ही गुलाब की पंखुडि़यों की खुशबू इस क्यारी की मिट्टी ने अपना ली। इसी कारण यह ढेला भी महक उठा है।'
गुरु ने प्रसन्नतापूर्वक कहा, 'हां वत्स, इसलिए मनुष्य को प्रकृति से सीखते रहकर सत्संग का लाभ उठाना चाहिए।'
आगे बढ़ने पर एक उपवन दिखाई दिया। फूलों की महक से आकषिर्त होकर गुरुजी वहां जाकर बैठ गए। उन्होंने गुलाब के पौधे के नीचे से एक मिट्टी का ढेला उठाया और शिष्य को सूंघने के लिए कहा। 'गुरुजी इससे तो गुलाब के फूल की खुशबू आ रही है।' शिष्य ने चहकते हुए कहा। गुरुजी ने पूछा, 'मिट्टी में तो कोई गंध नहीं होती, फिर फूलों की सुगंध कैसी आई?' शिष्य ने कहा, 'गुरुजी, आपने ही तो एक बार बताया था कि मिट्टी की अपनी कोई गंध नहीं होती। वह जिस वस्तु के संपर्क में आती है, वैसी ही गंध अपना लेती है। जैसे वर्षा की बूंदों का साथ पाकर वह सोंधी गंध फैलाती है, वैसे ही गुलाब की पंखुडि़यों की खुशबू इस क्यारी की मिट्टी ने अपना ली। इसी कारण यह ढेला भी महक उठा है।'
गुरु ने प्रसन्नतापूर्वक कहा, 'हां वत्स, इसलिए मनुष्य को प्रकृति से सीखते रहकर सत्संग का लाभ उठाना चाहिए।'
दोस्तों ठीक इसी तरह से हमारी आत्मा बी उसी मिटटी की तरह है जिसके संग में रहेगी , उसीकी महक ले लेती है /उसी तरह अछे लोगो के संग में रहेगे तो हमारे अन्दर अछे संस्कार,विचार और जीवन के प्रति हमारा रवैया सकारात्मक होगा, और हम हमारी आनेवाली पीढ़ी को संदेशा दे सकते है / मन्युष्य कभी बी बुरा नहीं होता ; उसे उसकी परिस्थितिया एसा बनती है / जो हमने हमारे अन्दर दबा कर रखा है उसकी शुद्दता कुछ अछे विचारो से हो जाती है/ फर्क हमारी समज में है सिर्फ/ जिस तरह से हम अखंड दीप को किसी पूजा या अर्चना में हमेशा रखते है ठीक वैसे ही विचारो की शुद्धता हमारे बहार के और अन्दर के जीवन में शांति फेलाते है / ये महज़ बाते नहीं है ,सिर्फ एक बार अपनी जीवन में उन रिश्तो को याद करे और खुद ही सोचे के ऐसे कितने हमारे दोस्त है, जिनकी वजह से हमें जीवन में आगे बढ़ने की शक्ति मिली या हमने उन लोगो के साथ रहकर कुछ सकारात्मक भावना जोड़ी है /
सत्संग बाहरी होता है पर वो अन्दर रूहानियत पे ले जाता है / हमारी सोच को धीरे धीरे बदलता है / और हमें खुद के लिए सोचने पे मजबूर करता है के क्या सही है और क्या गलत है!!!!! अगर इतना बी इन्सान अपने जीवन में पा लेता है तो जीवन की काफी तकलीफे हल हो जाती है / जिस कोलाहल में हम जी रहे है उसमे हमारी आन्तरिक शुद्धि करनी है, जिस तरह से पुत्र पिता का रुण अदा करता है ठीक वैसे ह़ी हमें हमारे अन्दर जा कर खुद के लिये प्रयत्न करने है/ सत्संग में गुरु या अपनों के वचन हमें हमारे अत:करण की शुद्धि का जरिया बनते है/ यह प्रयत्न हमें खुद करना है ,कोई हमारी इसमें सहायता नही कर सकता/
अंत में हम जिस तरह से आये वैसे ही चले जाएगे/ न कुछ लाये साथ में और नहीं किसी गुनिजन का फायदा उठाया !!!!!!
सिर्फ अपनी सोच को बदलो और अपना जीवन खुद महकाओ/ खुद बी उस फूल की तरह मेह्कोगे और दुनिया को भी महकाओगे /
सिर्फ इतना सोचे की हमें हमारे बच्चो को क्या देना है , वोही जो हमारे पास होगा!!!!!!!!!
दो घड़ी का ऐसे इंसानों का संग, जो हमें हमारे मूल तक ले जाए क्या वो सत्संग नहीं है??? जरा विचार जरुर करना!!!!!!!!
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